Wednesday, August 22, 2012

अरूले लेखेको





जनयुद्ध’ के बाद नेपाली माओवादी जंगल से शहर की ओर आ तो गए, पर उन्होंने शहर को ही जंगल बना दिया। जहां भी किसी कमजोर की जोरू, जमीन-जायदाद, उद्योग-व्यवसाय पर उनकी नजर पड़ी, वह माओवादियों की हो गई। इस संपत्ति हरण को लेकर माओवादी नेता आपस में भिड़ने लगे। आज भी नेपाल के अधिकतर लोग अपनी संपत्ति वापसी की राह देख रहे हैं। 

़़़भारत के बैंकों, जमीन-जायदाद कारोबार और ‘इंफ्रास्ट्रक्चर बिजनेस’ में पड़ोसी देशों का भरपूर काला धन छिपाया गया है। भारत में बाहरी देशों का काला धन कितना जमा है, यह सचमुच शोध का विषय है। सवाल है कि इस पूरे प्रकरण में भारत सरकार की क्या कोई जवाबदेही बनती है? भारत सरकार को उत्तर देना चाहिए कि नेपाल का काला धन हिंदुस्तान होते हुए स्विट्जरलैंड कैसे गया। एक बड़ा सवाल यह भी है कि नेपाली माओवादियों को भ्रष्ट करने में क्या भारत का भी हाथ रहा है?


हिन्दी दैनिक जनसत्ताको अनलाइन संस्करणमा २२ अगस्त २०१२ मा प्रकाशित  ' माओवाद के नाम पर' लेखबाट साभार



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